::व्यंग्य::
ऐ मेरी भूत(पूर्व) प्रेमिका !
अतिप्रिय ऐ मेरी भूत(पूर्व) प्रेमिका,
‘’क ख ग’’ !
बुरा मत मानना, प्रिये। तुम्हे इस तरह ''क ख ग'' कहकर संबोधित करते हुए मुझे हार्दिक क्लेश हो रहा है। करूँ क्या, प्रिये? सीधे संबोधन मेरे लिये कई बार बहुत घातक सिद्ध हुए हैं। इसलिये डरता हूँ। अपने समूचे ज़ज्बातों को समेटकर तुम्हे ''क ख ग'' का छद्म संबोधन दे रहा हूँ। आशा है तुम अन्यथा नहीं लोगी।
मैं तुम्हे ''प फ ब'' भी कह सकता था। पर मेरे जीवन मे तुम्हारा क्रम पहले है, इसलिये तुमसे पहले मैं ''प फ ब'' को नहीं घसीटना चाहता। उसे मैं अलग से पत्र लिख रहा हूँ।
तुम्हारे मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि मैं इतने सालों बाद तुम्हे क्यों याद कर रहा हूँ? इसके मात्र दो कारण हैं, प्राणाधिके ! पहला तो यह कि मैं तुम्हे याद करूं, इतना हक़ तो मुझे है ही। और दूसरा कारण जो बहुत महत्वपूर्ण है वह यह है कि तुम्हारे तथाकथित पूजनीय पिता ने, तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिए मुझे जो रुपये दिये थे, वे खत्म हो गये हैं।
सच प्रिये, आजतक मैं तुम्हे उन रुपयों के बल पर ही तो भुलाए हुए था। वर्ना तुम्हे भूल पाना क्या इतना आसान था, बोलो तो?
यदि उन रुपयों का सहारा ना होता तो प्रिये, मैं तो कब का टूटकर नगर निगम की सड़कों की शक्ल पा गया होता।
आज सोचता हूँ तो तुम्हारे पिताजी पर गर्व करने को जी चाहता है। वे कितने समझदार और सुलझे हुए विचारों के थे ! लगता है उन्होने भी अपनी जवानी में किसी ''ट ठ ड'' से प्यार किया था। प्रेम की व्यथा और तड़प को वे समझते थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि समय घावों को नहीं भर सकता। समय तो मुफ़्त में मिलने वाली चीज़ है; जिधर देखो, इफरात बिखरा पड़ा है।
तुम्हारे पिताजी ने अपने अनुभवों से समझ लिया था कि प्रेम के घाव मुफ़्त मे नहीं भरते। बल्कि पैसा ही, जो मुफ़्त मे नहीं आता, इस घाव को भर सकता है।
मैं तो तुम्हे सुखी देखना चाहता था, प्रिये। मैं तो वैसे ही तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चला जाता। जैसे मुफ़्त मे मैं तुम्हारी ज़िंदगी मे आया था, वैसे ही मुफ़्त में तुम्हारी ज़िंदगी से चला भी जाता। पर तुम्हारे पिताजी से मेरा इस तरह तुमसे बिछड़ना देखा नहीं गया। आख़िर वे भी इंसान थे। तुम्हारे ही तो बाप थे बेचारे(सच कहो, थे न?) !
आज यह राज खोलकर मैं अपनी छाती का बोझ उतारकर तुम्हारी छाती में लादना चाहता हूँ। बहुत ढोया है मैने इस बोझ को, प्रिये ! अब ज़रा तुम भी इसका आनंद उठाओ।
तुमने तो मुझे निर्मोही, धोखेबाज, फ़रेबी इत्यादि न जाने क्या क्या समझा होगा। है न ? पर तुम क्या जानो, प्रिये, कि कितना बड़ा धर्मसंकट मेरे सामने था !
एक तरफ तुम्हारे पिताजी की तरफ़ से दी गई दो चीज़ें थीं। पहली चीज़, तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिये स्नेहभरी धमकी और दूसरी, प्रेम का घाव भरने मे लिये मुआवज़े के रूप में पच्चीस हज़ार रुपये।
और इधर मेरे सामने थे- तुम्हारा प्यार, तुम्हारा भारी-भरकम सौन्दर्य और अपने दिल पर पत्थर रखकर तुम्हारे साथ बिताए वे अमिट पल-छिन !
प्रेम मे धर्मसंकट बड़ा दुखदाई होता है, प्रिये ! अनिर्णय की वह स्थिति बड़ी भयावह थी। तुम्हे चुनूँ या पैसों को? उधर तुम्हारे पिताजी ने मेरे सामने पैसे रखते हुए प्रेम भरी घुड़की दी थी-'' पूरे पच्चीस हज़ार रुपये हैं, बे ! इससे एक रुपया भी ज़्यादा नहीं दूंगा। समझा? इन्हे लेकर अपना मुंह काला कर ! और फिर कभी इधर मुड़कर भी देखा तो तेरी टांगें तुड़वा दूंगा !''
मैने फिल्मी डायलॉग भी मारा था, प्रिये-'' क्या यही क़ीमत लगाई है आपने अपने बेटी के प्यार की?'' तुम्हारे पिताजी ने मुझे प्यार से समझाया था-'' अबे, ज़्यादा स्मार्ट मत बन ! मुझे अभी औरों को भी तो निबटाना है ! तू सोचता है, तूही एक है मेरी बेटी की लिस्ट में ?''
सुनकर मेरा धर्मसंकट समाप्त हो गया था, प्रिय ! मैने सोचा कि प्रेमी तभी महान बनता है, जब वह त्याग करे। त्याग ही प्रेम को सार्थकता देता है। और तुम ज़रा गहराई से सोचो कि तुम्हारे प्रेम के आगे मात्र पच्चीस हज़ार रुपये मे वह त्याग कितना महान था, प्रिये ! मैं तो तुम्हारे पिताजी के द्वारा ठग लिया गया था, प्रिय। आज भी वह ठगन मेरे दिल में कहीं न कहीं कसकती रहती है।
आज मैं खुले दिल से यह बात स्वीकार करता हूँ, प्रिय। मेरे भीतर के त्यागी और दुनियादार इंसान ने ताड़ लिया था कि तुम्हे तो मुझ जैसे कई लड़के मिल जायेंगे, पर मुझे पच्चीस हज़ार रुपये नहीं मिलेंगे।
तुमने मुझे स्वार्थी समझा होगा, धोखेबाज माना होगा। पर सोचो ज़रा कि यदि मैं वो पच्चीस हज़ार रुपये लेकर तुम्हारी ज़िंदगी से दूर नहीं जाता तो? तुम्हारे पिताजी ने मेरी टांगें तुड़वा देने की धमकी दी थी। सच कहता हूँ, मैं टांगों के टूटने से कतई भयभीत नहीं था। मेरा
विश्वास करो, सुप्रिये ! मैं इतना स्वार्थी नहीं था कि तुम्हे एक लंगड़े के पल्ले बंधने पर मज़बूर करता। मैं जानता हूँ कि मेरे लंगड़ा होने पर भी तुम मुझ से ही शादी करती। तुम्हारी मूर्खता पर मुझे तब भी इतना ही भरोसा था, मेरी सुमुखी।
तुमने मुझे निर्मम और निष्ठुर माना होगा। रुपयों का लालची समझा होगा। पर सोचो ज़रा कि मैने क्या क्या खोया है। तुम्हे तो याद ही होगा कि जब हमें भूख लगती थी तो हम चाट-पकौड़ों और आइसक्रीम के साथ-साथ जीने-मरने की क़समें भी खाया करते थे। उन क़समों को तोड़कर मुझे क्या मिला ! मात्र पच्चीस हज़ार रुपये? सोचो भला, कितना बड़ा घाटा सहा है मैने, प्रिये ! उन क़समों को न तोड़ता तो आज तुम्हारे पिताजी की मिल्कियत पर ऐश कर रहा होता कि नहीं?
तुम्हारा तो एक-एक आंसू एक-एक हज़ार रुपये का था। तुम्हारी एक मुस्कान पांच सौ रुपये से कम की नहीं थी। सभी कुछ तुम्हारे पास रह गये। और मुझे मिला क्या- मात्र पच्चीस हज़ार रुपये !
तुम्हे अपने दिल कि व्यथा बता ही दूं, प्रिये। मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती है, कटोचती है, कोसती है। कहती है कि मैं सरेआम लूट लिया गया।पर किसी और को दोष क्या दूं। मात्र पच्चीस हज़ार की अदना सी रक़म लेकर मैने ख़ुद पर ही डकैती डाल ली।
तुमने शादी करके अपना घर ज़रूर बसा लिया होगा। जिससे तुमने शादी की होगी, उसका घर बसा कि नहीं, मुझे बताना कभी? तुमने ज़रूर उस लल्लू घनश्याम से शादी की होगी, जिसके बाप की नज़रें भी तुम पर थीं ( ताकि वे तुम्हे बहू बना सकें) ! या हो सकता है तुमने उस बौड़म श्याम को चुना हो जो एक बार किसी को लेकर भाग गया था और फिर बाइज़्ज़त अकेले लौट आया था। या वो रईसज़ादा भी हो सकता है जिसे तुम्हारा कुत्ता अपना प्रतिद्वंदी समझता था।
जिस किसी ने भी तुमसे शादी की, अच्छा ही किया। देर-सवेर किसी न किसी अभागे का जीवन तो बर्बाद होना ही था।
तुम्हारे मन में भी जिज्ञासा होगी कि मैने शादी की या नहीं? तो तुम जान लो, प्रिये कि मैं किसी लड़की के बाप को कभी पसंद आया ही नहीं। ''च छ ज'' हो या ''त थ द''; ''य र ल'' हो या ''क्ष त्र ज्ञ’’, सभी के बापों ने मुझे टांगें तुड़वा देने की धमकियां दीं और उनकी बेटियों की ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिये मुआवज़े दिये।
अब मैं कुँवारा न रहता तो क्या करता, प्रिये, तुम्ही बोलो?
खैर, तुम सुखी रहो। हाँ, डाइटिंग करती रहना, डीयर ! तुम खाती ज़्यादा हो। याद है न कि तुम्हे चाट वाले की दूकान पर देखकर बाकी ग्राहक वापस लौट जाते थे?
अपने बच्चों को मेरा प्यार और स्नेह देना। पर प्लीज़, मुझे उनका मामा मत बनाना, प्रिये !
अब और क्या लिखूं? तुम्हारे कुछ पत्र हैं मेरे पास, जो मैने बारिश के दिनों के लिये बचा लिये थे। बस अब उन्ही का सहारा रह गया है। उन्ही के सहारे जी लूंगा अब। प्रति प्रेम-पत्र यदि पांच सौ रुपये महीने मिलते रहें तो मेरा गुज़ारा हो जायेगा। ज़्यादा लालची नहीं हूँ मैं, डार्लिंग ! ऐसे मात्र तीस पत्र ही हैं मेरे पास। प्रूफ़ के लिये एक प्रेम-पत्र की फोटो-कॉपी सलंग्न कर रहा हूँ।
न प्रिये न, इसे ब्लैक-मेल न समझना। मैं इतना भी अधम नहीं हूँ, मेरी प्राण। मैं काफी सोच-विचारकर यह प्रस्ताव तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। काली करतूतों का मुआवज़ा काली कमाई से ही दिया जाता है, यह समझने की बात है। और काली कमाई के बिना तुम्हे कौन सा पति पाल सकता है, मेरी संकटमोचन। उनकी काली कमाई को ही तो चूना लगाना है। इसलिये भूल चूक लेनी देनी।
पत्रांत कर रहा हूँ, प्रिय ! मेरा ढेर सारा नगद प्यार।
तुम्हारा भूत(पूर्व) प्रेमी
''इ ई उ ऊ''
Shrawan Kumar Urmalia
19/207 Shivam Khand,
Vasundhara, Ghaziabad-201012
Mob. 9868549036
ऐ मेरी भूत(पूर्व) प्रेमिका !
अतिप्रिय ऐ मेरी भूत(पूर्व) प्रेमिका,
‘’क ख ग’’ !
बुरा मत मानना, प्रिये। तुम्हे इस तरह ''क ख ग'' कहकर संबोधित करते हुए मुझे हार्दिक क्लेश हो रहा है। करूँ क्या, प्रिये? सीधे संबोधन मेरे लिये कई बार बहुत घातक सिद्ध हुए हैं। इसलिये डरता हूँ। अपने समूचे ज़ज्बातों को समेटकर तुम्हे ''क ख ग'' का छद्म संबोधन दे रहा हूँ। आशा है तुम अन्यथा नहीं लोगी।
मैं तुम्हे ''प फ ब'' भी कह सकता था। पर मेरे जीवन मे तुम्हारा क्रम पहले है, इसलिये तुमसे पहले मैं ''प फ ब'' को नहीं घसीटना चाहता। उसे मैं अलग से पत्र लिख रहा हूँ।
तुम्हारे मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि मैं इतने सालों बाद तुम्हे क्यों याद कर रहा हूँ? इसके मात्र दो कारण हैं, प्राणाधिके ! पहला तो यह कि मैं तुम्हे याद करूं, इतना हक़ तो मुझे है ही। और दूसरा कारण जो बहुत महत्वपूर्ण है वह यह है कि तुम्हारे तथाकथित पूजनीय पिता ने, तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिए मुझे जो रुपये दिये थे, वे खत्म हो गये हैं।
सच प्रिये, आजतक मैं तुम्हे उन रुपयों के बल पर ही तो भुलाए हुए था। वर्ना तुम्हे भूल पाना क्या इतना आसान था, बोलो तो?
यदि उन रुपयों का सहारा ना होता तो प्रिये, मैं तो कब का टूटकर नगर निगम की सड़कों की शक्ल पा गया होता।
आज सोचता हूँ तो तुम्हारे पिताजी पर गर्व करने को जी चाहता है। वे कितने समझदार और सुलझे हुए विचारों के थे ! लगता है उन्होने भी अपनी जवानी में किसी ''ट ठ ड'' से प्यार किया था। प्रेम की व्यथा और तड़प को वे समझते थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि समय घावों को नहीं भर सकता। समय तो मुफ़्त में मिलने वाली चीज़ है; जिधर देखो, इफरात बिखरा पड़ा है।
तुम्हारे पिताजी ने अपने अनुभवों से समझ लिया था कि प्रेम के घाव मुफ़्त मे नहीं भरते। बल्कि पैसा ही, जो मुफ़्त मे नहीं आता, इस घाव को भर सकता है।
मैं तो तुम्हे सुखी देखना चाहता था, प्रिये। मैं तो वैसे ही तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चला जाता। जैसे मुफ़्त मे मैं तुम्हारी ज़िंदगी मे आया था, वैसे ही मुफ़्त में तुम्हारी ज़िंदगी से चला भी जाता। पर तुम्हारे पिताजी से मेरा इस तरह तुमसे बिछड़ना देखा नहीं गया। आख़िर वे भी इंसान थे। तुम्हारे ही तो बाप थे बेचारे(सच कहो, थे न?) !
आज यह राज खोलकर मैं अपनी छाती का बोझ उतारकर तुम्हारी छाती में लादना चाहता हूँ। बहुत ढोया है मैने इस बोझ को, प्रिये ! अब ज़रा तुम भी इसका आनंद उठाओ।
तुमने तो मुझे निर्मोही, धोखेबाज, फ़रेबी इत्यादि न जाने क्या क्या समझा होगा। है न ? पर तुम क्या जानो, प्रिये, कि कितना बड़ा धर्मसंकट मेरे सामने था !
एक तरफ तुम्हारे पिताजी की तरफ़ से दी गई दो चीज़ें थीं। पहली चीज़, तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिये स्नेहभरी धमकी और दूसरी, प्रेम का घाव भरने मे लिये मुआवज़े के रूप में पच्चीस हज़ार रुपये।
और इधर मेरे सामने थे- तुम्हारा प्यार, तुम्हारा भारी-भरकम सौन्दर्य और अपने दिल पर पत्थर रखकर तुम्हारे साथ बिताए वे अमिट पल-छिन !
प्रेम मे धर्मसंकट बड़ा दुखदाई होता है, प्रिये ! अनिर्णय की वह स्थिति बड़ी भयावह थी। तुम्हे चुनूँ या पैसों को? उधर तुम्हारे पिताजी ने मेरे सामने पैसे रखते हुए प्रेम भरी घुड़की दी थी-'' पूरे पच्चीस हज़ार रुपये हैं, बे ! इससे एक रुपया भी ज़्यादा नहीं दूंगा। समझा? इन्हे लेकर अपना मुंह काला कर ! और फिर कभी इधर मुड़कर भी देखा तो तेरी टांगें तुड़वा दूंगा !''
मैने फिल्मी डायलॉग भी मारा था, प्रिये-'' क्या यही क़ीमत लगाई है आपने अपने बेटी के प्यार की?'' तुम्हारे पिताजी ने मुझे प्यार से समझाया था-'' अबे, ज़्यादा स्मार्ट मत बन ! मुझे अभी औरों को भी तो निबटाना है ! तू सोचता है, तूही एक है मेरी बेटी की लिस्ट में ?''
सुनकर मेरा धर्मसंकट समाप्त हो गया था, प्रिय ! मैने सोचा कि प्रेमी तभी महान बनता है, जब वह त्याग करे। त्याग ही प्रेम को सार्थकता देता है। और तुम ज़रा गहराई से सोचो कि तुम्हारे प्रेम के आगे मात्र पच्चीस हज़ार रुपये मे वह त्याग कितना महान था, प्रिये ! मैं तो तुम्हारे पिताजी के द्वारा ठग लिया गया था, प्रिय। आज भी वह ठगन मेरे दिल में कहीं न कहीं कसकती रहती है।
आज मैं खुले दिल से यह बात स्वीकार करता हूँ, प्रिय। मेरे भीतर के त्यागी और दुनियादार इंसान ने ताड़ लिया था कि तुम्हे तो मुझ जैसे कई लड़के मिल जायेंगे, पर मुझे पच्चीस हज़ार रुपये नहीं मिलेंगे।
तुमने मुझे स्वार्थी समझा होगा, धोखेबाज माना होगा। पर सोचो ज़रा कि यदि मैं वो पच्चीस हज़ार रुपये लेकर तुम्हारी ज़िंदगी से दूर नहीं जाता तो? तुम्हारे पिताजी ने मेरी टांगें तुड़वा देने की धमकी दी थी। सच कहता हूँ, मैं टांगों के टूटने से कतई भयभीत नहीं था। मेरा
विश्वास करो, सुप्रिये ! मैं इतना स्वार्थी नहीं था कि तुम्हे एक लंगड़े के पल्ले बंधने पर मज़बूर करता। मैं जानता हूँ कि मेरे लंगड़ा होने पर भी तुम मुझ से ही शादी करती। तुम्हारी मूर्खता पर मुझे तब भी इतना ही भरोसा था, मेरी सुमुखी।
तुमने मुझे निर्मम और निष्ठुर माना होगा। रुपयों का लालची समझा होगा। पर सोचो ज़रा कि मैने क्या क्या खोया है। तुम्हे तो याद ही होगा कि जब हमें भूख लगती थी तो हम चाट-पकौड़ों और आइसक्रीम के साथ-साथ जीने-मरने की क़समें भी खाया करते थे। उन क़समों को तोड़कर मुझे क्या मिला ! मात्र पच्चीस हज़ार रुपये? सोचो भला, कितना बड़ा घाटा सहा है मैने, प्रिये ! उन क़समों को न तोड़ता तो आज तुम्हारे पिताजी की मिल्कियत पर ऐश कर रहा होता कि नहीं?
तुम्हारा तो एक-एक आंसू एक-एक हज़ार रुपये का था। तुम्हारी एक मुस्कान पांच सौ रुपये से कम की नहीं थी। सभी कुछ तुम्हारे पास रह गये। और मुझे मिला क्या- मात्र पच्चीस हज़ार रुपये !
तुम्हे अपने दिल कि व्यथा बता ही दूं, प्रिये। मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती है, कटोचती है, कोसती है। कहती है कि मैं सरेआम लूट लिया गया।पर किसी और को दोष क्या दूं। मात्र पच्चीस हज़ार की अदना सी रक़म लेकर मैने ख़ुद पर ही डकैती डाल ली।
तुमने शादी करके अपना घर ज़रूर बसा लिया होगा। जिससे तुमने शादी की होगी, उसका घर बसा कि नहीं, मुझे बताना कभी? तुमने ज़रूर उस लल्लू घनश्याम से शादी की होगी, जिसके बाप की नज़रें भी तुम पर थीं ( ताकि वे तुम्हे बहू बना सकें) ! या हो सकता है तुमने उस बौड़म श्याम को चुना हो जो एक बार किसी को लेकर भाग गया था और फिर बाइज़्ज़त अकेले लौट आया था। या वो रईसज़ादा भी हो सकता है जिसे तुम्हारा कुत्ता अपना प्रतिद्वंदी समझता था।
जिस किसी ने भी तुमसे शादी की, अच्छा ही किया। देर-सवेर किसी न किसी अभागे का जीवन तो बर्बाद होना ही था।
तुम्हारे मन में भी जिज्ञासा होगी कि मैने शादी की या नहीं? तो तुम जान लो, प्रिये कि मैं किसी लड़की के बाप को कभी पसंद आया ही नहीं। ''च छ ज'' हो या ''त थ द''; ''य र ल'' हो या ''क्ष त्र ज्ञ’’, सभी के बापों ने मुझे टांगें तुड़वा देने की धमकियां दीं और उनकी बेटियों की ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिये मुआवज़े दिये।
अब मैं कुँवारा न रहता तो क्या करता, प्रिये, तुम्ही बोलो?
खैर, तुम सुखी रहो। हाँ, डाइटिंग करती रहना, डीयर ! तुम खाती ज़्यादा हो। याद है न कि तुम्हे चाट वाले की दूकान पर देखकर बाकी ग्राहक वापस लौट जाते थे?
अपने बच्चों को मेरा प्यार और स्नेह देना। पर प्लीज़, मुझे उनका मामा मत बनाना, प्रिये !
अब और क्या लिखूं? तुम्हारे कुछ पत्र हैं मेरे पास, जो मैने बारिश के दिनों के लिये बचा लिये थे। बस अब उन्ही का सहारा रह गया है। उन्ही के सहारे जी लूंगा अब। प्रति प्रेम-पत्र यदि पांच सौ रुपये महीने मिलते रहें तो मेरा गुज़ारा हो जायेगा। ज़्यादा लालची नहीं हूँ मैं, डार्लिंग ! ऐसे मात्र तीस पत्र ही हैं मेरे पास। प्रूफ़ के लिये एक प्रेम-पत्र की फोटो-कॉपी सलंग्न कर रहा हूँ।
न प्रिये न, इसे ब्लैक-मेल न समझना। मैं इतना भी अधम नहीं हूँ, मेरी प्राण। मैं काफी सोच-विचारकर यह प्रस्ताव तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। काली करतूतों का मुआवज़ा काली कमाई से ही दिया जाता है, यह समझने की बात है। और काली कमाई के बिना तुम्हे कौन सा पति पाल सकता है, मेरी संकटमोचन। उनकी काली कमाई को ही तो चूना लगाना है। इसलिये भूल चूक लेनी देनी।
पत्रांत कर रहा हूँ, प्रिय ! मेरा ढेर सारा नगद प्यार।
तुम्हारा भूत(पूर्व) प्रेमी
''इ ई उ ऊ''
Shrawan Kumar Urmalia
19/207 Shivam Khand,
Vasundhara, Ghaziabad-201012
Mob. 9868549036