Sunday, May 22, 2016

ऐ मेरी भूतपूर्व प्रेमिका !

::व्यंग्य::
ऐ मेरी भूत(पूर्व) प्रेमिका !
अतिप्रिय ऐ मेरी भूत(पूर्व) प्रेमिका,
‘’क ख ग’’ !
बुरा मत मानना, प्रिये। तुम्हे इस तरह ''क ख ग'' कहकर संबोधित करते हुए मुझे हार्दिक क्लेश हो रहा है। करूँ क्या, प्रिये? सीधे संबोधन मेरे लिये कई बार बहुत घातक सिद्ध हुए हैं। इसलिये डरता हूँ। अपने समूचे ज़ज्बातों को समेटकर तुम्हे ''क ख ग'' का छद्म संबोधन दे रहा हूँ। आशा है तुम अन्यथा नहीं लोगी।
मैं तुम्हे ''प फ ब'' भी कह सकता था। पर मेरे जीवन मे तुम्हारा क्रम पहले है, इसलिये तुमसे पहले मैं ''प फ ब'' को नहीं घसीटना चाहता। उसे मैं अलग से पत्र लिख रहा हूँ।
तुम्हारे मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि मैं इतने सालों बाद तुम्हे क्यों याद कर रहा हूँ? इसके मात्र दो कारण हैं, प्राणाधिके ! पहला तो यह कि मैं तुम्हे याद करूं, इतना हक़ तो मुझे है ही। और दूसरा कारण जो बहुत महत्वपूर्ण है वह यह है कि तुम्हारे तथाकथित पूजनीय पिता ने, तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिए मुझे जो रुपये दिये थे, वे खत्म हो गये हैं।
सच प्रिये, आजतक मैं तुम्हे उन रुपयों के बल पर ही तो भुलाए हुए था। वर्ना तुम्हे भूल पाना क्या इतना आसान था, बोलो तो?
यदि उन रुपयों का सहारा ना होता तो प्रिये, मैं तो कब का टूटकर नगर निगम की सड़कों की शक्ल पा गया होता।
आज सोचता हूँ तो तुम्हारे पिताजी पर गर्व करने को जी चाहता है। वे कितने समझदार और सुलझे हुए विचारों के थे ! लगता है उन्होने भी अपनी जवानी में किसी ''ट ठ ड'' से प्यार किया था। प्रेम की व्यथा और तड़प को वे समझते थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि समय घावों को नहीं भर सकता। समय तो मुफ़्त में मिलने वाली चीज़ है; जिधर देखो, इफरात बिखरा पड़ा है।
तुम्हारे पिताजी ने अपने अनुभवों से समझ लिया था कि प्रेम के घाव मुफ़्त मे नहीं भरते। बल्कि पैसा ही, जो मुफ़्त मे नहीं आता, इस घाव को भर सकता है।
मैं तो तुम्हे सुखी देखना चाहता था, प्रिये। मैं तो वैसे ही तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चला जाता। जैसे मुफ़्त मे मैं तुम्हारी ज़िंदगी मे आया था, वैसे ही मुफ़्त में तुम्हारी ज़िंदगी से चला भी जाता। पर तुम्हारे पिताजी से मेरा इस तरह तुमसे बिछड़ना देखा नहीं गया। आख़िर वे भी इंसान थे। तुम्हारे ही तो बाप थे बेचारे(सच कहो, थे न?) !
आज यह राज खोलकर मैं अपनी छाती का बोझ उतारकर तुम्हारी छाती में लादना चाहता हूँ। बहुत ढोया है मैने इस बोझ को, प्रिये ! अब ज़रा तुम भी इसका आनंद उठाओ।
तुमने तो मुझे निर्मोही, धोखेबाज, फ़रेबी इत्यादि न जाने क्या क्या समझा होगा। है न ? पर तुम क्या जानो, प्रिये, कि कितना बड़ा धर्मसंकट मेरे सामने था !
एक तरफ तुम्हारे पिताजी की तरफ़ से दी गई दो चीज़ें थीं। पहली चीज़, तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिये स्नेहभरी धमकी और दूसरी, प्रेम का घाव भरने मे लिये मुआवज़े के रूप में पच्चीस हज़ार रुपये।
और इधर मेरे सामने थे- तुम्हारा प्यार, तुम्हारा भारी-भरकम सौन्दर्य और अपने दिल पर पत्थर रखकर तुम्हारे साथ बिताए वे अमिट पल-छिन !
प्रेम मे धर्मसंकट बड़ा दुखदाई होता है, प्रिये ! अनिर्णय की वह स्थिति बड़ी भयावह थी। तुम्हे चुनूँ या पैसों को? उधर तुम्हारे पिताजी ने मेरे सामने पैसे रखते हुए प्रेम भरी घुड़की दी थी-'' पूरे पच्चीस हज़ार रुपये हैं, बे ! इससे एक रुपया भी ज़्यादा नहीं दूंगा। समझा? इन्हे लेकर अपना मुंह काला कर ! और फिर कभी इधर मुड़कर भी देखा तो तेरी टांगें तुड़वा दूंगा !''
मैने फिल्मी डायलॉग भी मारा था, प्रिये-'' क्या यही क़ीमत लगाई है आपने अपने बेटी के प्यार की?'' तुम्हारे पिताजी ने मुझे प्यार से समझाया था-'' अबे, ज़्यादा स्मार्ट मत बन ! मुझे अभी औरों को भी तो निबटाना है ! तू सोचता है, तूही एक है मेरी बेटी की लिस्ट में ?''
सुनकर मेरा धर्मसंकट समाप्त हो गया था, प्रिय ! मैने सोचा कि प्रेमी तभी महान बनता है, जब वह त्याग करे। त्याग ही प्रेम को सार्थकता देता है। और तुम ज़रा गहराई से सोचो कि तुम्हारे प्रेम के आगे मात्र पच्चीस हज़ार रुपये मे वह त्याग कितना महान था, प्रिये ! मैं तो तुम्हारे पिताजी के द्वारा ठग लिया गया था, प्रिय। आज भी वह ठगन मेरे दिल में कहीं न कहीं कसकती रहती है।
आज मैं खुले दिल से यह बात स्वीकार करता हूँ, प्रिय। मेरे भीतर के त्यागी और दुनियादार इंसान ने ताड़ लिया था कि तुम्हे तो मुझ जैसे कई लड़के मिल जायेंगे, पर मुझे पच्चीस हज़ार रुपये नहीं मिलेंगे।
तुमने मुझे स्वार्थी समझा होगा, धोखेबाज माना होगा। पर सोचो ज़रा कि यदि मैं वो पच्चीस हज़ार रुपये लेकर तुम्हारी ज़िंदगी से दूर नहीं जाता तो? तुम्हारे पिताजी ने मेरी टांगें तुड़वा देने की धमकी दी थी। सच कहता हूँ, मैं टांगों के टूटने से कतई भयभीत नहीं था। मेरा
विश्वास करो, सुप्रिये ! मैं इतना स्वार्थी नहीं था कि तुम्हे एक लंगड़े के पल्ले बंधने पर मज़बूर करता। मैं जानता हूँ कि मेरे लंगड़ा होने पर भी तुम मुझ से ही शादी करती। तुम्हारी मूर्खता पर मुझे तब भी इतना ही भरोसा था, मेरी सुमुखी।
तुमने मुझे निर्मम और निष्ठुर माना होगा। रुपयों का लालची समझा होगा। पर सोचो ज़रा कि मैने क्या क्या खोया है। तुम्हे तो याद ही होगा कि जब हमें भूख लगती थी तो हम चाट-पकौड़ों और आइसक्रीम के साथ-साथ जीने-मरने की क़समें भी खाया करते थे। उन क़समों को तोड़कर मुझे क्या मिला ! मात्र पच्चीस हज़ार रुपये? सोचो भला, कितना बड़ा घाटा सहा है मैने, प्रिये ! उन क़समों को न तोड़ता तो आज तुम्हारे पिताजी की मिल्कियत पर ऐश कर रहा होता कि नहीं?
तुम्हारा तो एक-एक आंसू एक-एक हज़ार रुपये का था। तुम्हारी एक मुस्कान पांच सौ रुपये से कम की नहीं थी। सभी कुछ तुम्हारे पास रह गये। और मुझे मिला क्या- मात्र पच्चीस हज़ार रुपये !
तुम्हे अपने दिल कि व्यथा बता ही दूं, प्रिये। मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती है, कटोचती है, कोसती है। कहती है कि मैं सरेआम लूट लिया गया।पर किसी और को दोष क्या दूं। मात्र पच्चीस हज़ार की अदना सी रक़म लेकर मैने ख़ुद पर ही डकैती डाल ली।
तुमने शादी करके अपना घर ज़रूर बसा लिया होगा। जिससे तुमने शादी की होगी, उसका घर बसा कि नहीं, मुझे बताना कभी? तुमने ज़रूर उस लल्लू घनश्याम से शादी की होगी, जिसके बाप की नज़रें भी तुम पर थीं ( ताकि वे तुम्हे बहू बना सकें) ! या हो सकता है तुमने उस बौड़म श्याम को चुना हो जो एक बार किसी को लेकर भाग गया था और फिर बाइज़्ज़त अकेले लौट आया था। या वो रईसज़ादा भी हो सकता है जिसे तुम्हारा कुत्ता अपना प्रतिद्वंदी समझता था।
जिस किसी ने भी तुमसे शादी की, अच्छा ही किया। देर-सवेर किसी न किसी अभागे का जीवन तो बर्बाद होना ही था।
तुम्हारे मन में भी जिज्ञासा होगी कि मैने शादी की या नहीं? तो तुम जान लो, प्रिये कि मैं किसी लड़की के बाप को कभी पसंद आया ही नहीं। ''च छ ज'' हो या ''त थ द''; ''य र ल'' हो या ''क्ष त्र ज्ञ’’, सभी के बापों ने मुझे टांगें तुड़वा देने की धमकियां दीं और उनकी बेटियों की ज़िंदगी से दूर चले जाने के लिये मुआवज़े दिये।
अब मैं कुँवारा न रहता तो क्या करता, प्रिये, तुम्ही बोलो?
खैर, तुम सुखी रहो। हाँ, डाइटिंग करती रहना, डीयर ! तुम खाती ज़्यादा हो। याद है न कि तुम्हे चाट वाले की दूकान पर देखकर बाकी ग्राहक वापस लौट जाते थे?
अपने बच्चों को मेरा प्यार और स्नेह देना। पर प्लीज़, मुझे उनका मामा मत बनाना, प्रिये !
अब और क्या लिखूं? तुम्हारे कुछ पत्र हैं मेरे पास, जो मैने बारिश के दिनों के लिये बचा लिये थे। बस अब उन्ही का सहारा रह गया है। उन्ही के सहारे जी लूंगा अब। प्रति प्रेम-पत्र यदि पांच सौ रुपये महीने मिलते रहें तो मेरा गुज़ारा हो जायेगा। ज़्यादा लालची नहीं हूँ मैं, डार्लिंग ! ऐसे मात्र तीस पत्र ही हैं मेरे पास। प्रूफ़ के लिये एक प्रेम-पत्र की फोटो-कॉपी सलंग्न कर रहा हूँ।
न प्रिये न, इसे ब्लैक-मेल न समझना। मैं इतना भी अधम नहीं हूँ, मेरी प्राण। मैं काफी सोच-विचारकर यह प्रस्ताव तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। काली करतूतों का मुआवज़ा काली कमाई से ही दिया जाता है, यह समझने की बात है। और काली कमाई के बिना तुम्हे कौन सा पति पाल सकता है, मेरी संकटमोचन। उनकी काली कमाई को ही तो चूना लगाना है। इसलिये भूल चूक लेनी देनी।
पत्रांत कर रहा हूँ, प्रिय ! मेरा ढेर सारा नगद प्यार।
तुम्हारा भूत(पूर्व) प्रेमी
''इ ई उ ऊ''
Shrawan Kumar Urmalia
19/207 Shivam Khand,
Vasundhara, Ghaziabad-201012
Mob. 9868549036

तलाश एक अदद वल्दियत क !

व्यंग्य
तलाश एक अदद वल्दियत की
(श्रवण कुमार उर्मलिया)
वर्षा-ऋतु की भीनी भीनी फुहारों का आनंद लेने वाले भारतमाता की सभी वल्दियतविहीन संतानों को मेरा शत शत नमन।
प्यारे भारतवासियो, तुम क्या जानो की यह बात कहते हुए मैं कितनी पीड़ा और दीनभावना से भरा हुआ हूँ। कमबख्त बारिश ने कदम रखते ही एक अजीब उलझन मेरे गले में डाल दी! मेरा ह्रदय घनघोर विषाद से भर गया है।
यदि यह मेरा व्यक्तिगत दर्द होता तो मैं कदापि विचलित नहीं होता। पर समस्या तो भारतमाता की समूची संतानों की है। इसलिए मेरा दुःख असीम और असहनीय है।
कहानी यह है कि मेरे मोहल्ले में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पागल रहता है(किस मोहल्ले में पागल नहीं रहते!)। वह नैसर्गिक प्रतिभा वाला और तन-मन-धन से समर्पित पागलहै। पागलपन के सभी स्थापित मापदंडों के
अनुसार वह उत्कृष्टतम है।
मेरे साथ उस पागल की ज़रा ज़्यादा ही छनती है(और भला किससे छनेगी मेरी!)। कल रात उसने अचानक मुझे घेर लिया और ठहाका लगाकर बोला- ''हम सब भारतवासी अपनी भारतमाता की संतानें हैं कि नहीं?जल्दी बताओ-हैं कि नहीं?'' उससे पीछा छुड़ाने के लिए मैं बोला-''इसमें तो कोई शक नहीं कि हम सब भारतमाता कि संतानें हैं!''
पागल ने इस बार और एक घातक ठहाका लगाया और अपनी ऑंखें मटकाते हुए बोला- ''तो अब बताओ बच्चू कि इन संतानों का बाप कौन है? मेरा बाप कौन है?तुम्हारा बाप कौन है? हम सब भारतवासियों का बाप कौन है? जल्दी बताओ? बोलते क्यों नहीं?''
मैंने किसी तरह पागल से पीछा तो छुड़ा लिया, पर उसका यक्ष-प्रश्न क़र्ज़ उगाहने वाले की तरह मेरे पीछे लगा हुआ है। हम सब बचपन से ही सुनते आए हैं कि हम सब भारतमाता की संतानें हैं। जब माता है तो पिता भी होना ही चाहिए। पर हमारे पिता आखिर हैं कहाँ?
चाचा नेहरू ने भी जेल के भीतर 'भारत एक खोज' के चिंतन-मनन-लेखन में सारा समय बर्बाद कर दिया। उन्होंने भी भारतवासियों की वल्दियत तलाशने की कोशिश नहीं की। हो सकता है, उन्होंने सोचा हो कि राष्ट्रपिता तो हैं ही, बापू की संतानों को वल्दियत कि क्या जरुरत!
अब समझ में आया न, भारतवासियो कि मैंने तुम सभी को वल्दियत-विहीन कहकर क्यों संबोधित किया है। अब कहाँ जाकर तलाश करूं सभी की वल्दियत को?सभी मुझे बिना पिता की संतानें नज़र आ रहे हैं और मेरी हीन भावना को बढ़ा रहें हैं।
मेरा मन जब बहुत भारी हो गया तो मैं अपने एक डाक्टर मित्र के पास जा पहुंचा। मेरे इस मित्र ने डाक्टर बनने के बाद ऐसी ख्याति अर्जित की है कि इसके
इलाज़ाधीन मरीजों को मरने के लिए ज़्यादा परिश्रम और इंतजार नहीं करना पड़ता है।
यूँ तो यह मेरे बचपन का दोस्त है। पर चूँकि इसके पिताश्री धर्मपरिवर्तन के सहारे 'फादर' की नस्ल में आ गए थे, इसलिए इसने सुविधाओं का बहुत दुरूपयोग किया है। सरकार से वजीफ़ा लेते समय यह विशिष्ट बन जाता था। शेष अवसरों पर इसे और इसके परिवार को सलीब और ताबूत के फायदे होते रहते थे।
इसे आसानी से मेडिकल में दाखिला मिल गया और डाक्टर बनते ही यह मरीजों को सलीबों पर टांगने लगा। मैं इसके क्लीनिक में पंहुंचा तो देखा की वह अपने क्लीनिक के सामने फैले हुए कब्रिस्तान को बड़ी हसरत भरी नज़रों से निहार रहा था। मुझे बैठने का इशारा करते हुए बोला- ''यार, कुछ भी कहो, इन अंग्रेजों को ज़िंदा और मुर्दा दोनों रूपों में रहने का सलीका आता था! देखो न, कितना ख़ूबसूरत कब्रिस्तान है यह! और जब मैं यहाँ के गाँव-बस्तियों को देखता हूँ तो मुझे उबकाई आती है। व्हाट अ डर्टी पीपल, यार!''
उसकी बातें सुनकर मैं और भी ज्यादा पीड़ित हो गया। इसे अंग्रेजों के बनवाए हुए कब्रिस्तान ख़ूबसूरत लगते हैं। ऐसा लगना स्वाभाविक भी है, क्योंकि इसने अपने पेशे को कब्रिस्तान से जो जोड़ रखा है। अंग्रेजियत ही इसकी वल्दियत है। मैंने अपने इस मित्र को भारी मन से बधाई दी- ''यार,डाक्टर, तू भाग्यवान है की तुझे वल्दियत मिल गयी। पर अभी मुझे बाकी लोगों की वल्दियत तलाश करनी है, इसलिए तुझे इस क़ब्रिस्तान के सहारे छोड़कर चलता हूँ।''
अपने एक और चिड़ीमार दोस्त को अपनी परेशानी बताई तो वह मुझ पर दंगों की तरह भड़क उठा- ''ददुआ, तेरे साथ यही तो सबसे बड़ी मुसीबत है! तू चट से भारतमाता की सभी संतानों की फ़िक़र में लग जाता है! अरे, आज के ज़माने में अपनी सोच, अपनी! जाकर पहले अपनी बपौती ढूंढ़, समझा? इस देश में सभी ने अपना अपना एक अदद पिता ढूंढ़ रखा है। और इस तरह बाप-बेटे का हर जोड़ा भारतमईया को तरह तरह से नोंच-खसोट रहा है। तू भी एक पिता की तलाश कर और बहती गंगा में हाथ धो। समझा?''
मैं रात अपने घर लौट रहा था कि एक अँधेरे कोने में एक पढ़े-लिखे सज्जन ने मुझे छुरा दिखाते हुए आदेश दिया- ''निकाल बे, क्या है तेरे पास? जल्दी कर!''
मैंने दयनीय मुद्रा बनाकर कहा- ''भाई, मुझे माफ़ करना। तेरी सेवा में अर्पित करने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। अभी तो मेरा एक अदद पिता भी तैयार नहीं हुआ है। मैं बहुत ही निर्धन हूँ, मेरे दोस्त। पर तूने तो अपना बाप तलाश ही लिया होगा, तभी तो अँधेरे में छुरा चमका रहा है। है न?''
मेरी स्थिति पर अफ़सोस जताते हुए वह बोला- ''अरे! राम! राम!! पिता का न होना बहुत तकलीफ़देह बात है। अपुन ने तो यहाँ के थानेदार को अपना बाप बना रखा है और चैन से चोरी कर रहा हूँ। तू भी उन्ही की शरण में चला जा!''
मैं सीधे थानेदार उद्दंड सिंह जी के पास जाकर शरणागत होता भया- ''साहिबजी, मैं आपको अपना पिता बनाने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहता हूँ। कई दु:खी वल्दियत-विहीन असामाजिक तत्व आपकी छत्र-छाया में चैन की बंसी बजा रहे हैं। मुझे भी आप अपनी शरण में ले लीजिये, माई बाप?''
वे थानेदाराना लहजे में स्नेहपूर्वक बोले- ''ठीक है, ठीक है! ज्यादा पट-पट करने का नईं, क्या? पहले बता, तुझे चोरी-वोरी, लूटमार वगैरह का कोई अनुभव है कि नहीं?कुछ पुराना एक्सपीरिएंस, कोई पुराना रिकार्ड?''
मैं उनके चरणों में साष्टांग दंडवत करते हुए बोला- ''सब कुछ सीख लूँगा, माई-बाप! बस, आपका आशीर्वाद चाहिए! सर पर किसी पिता का साया न हो तो बड़ा दुःख होता है, सर जी!''
उद्दंड सिंह जी बोले- ''क्यों बे, हमने कोई टरेनिंग सकूल खोल रखा है क्या? हम नौसीखियों के बाप नहीं बनते। क्या समझा? तू थ्रू प्रापर-चैनेल आदरणीय घरमंत्री के पास चला जा। वे हम सब पुलिसवालों के आदरणीय बाप हैं। शायद वे तुझे शरण दे दें।''
मैं डी.एम्. के थ्रू गृहमंत्री आदरणीय जामवंत जी के पास पहुंचा। वे शर्म से अपने घुटनों में अपना सर छिपाए बैठे थे। एकपाद होकर मैंने उनकी स्तुति की- ''माननीय, आप मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं! सच्चा, सस्ता और टिकाऊ पिता बनने के सभी गुण आपमें मौजूद हैं। अस्तु आप स्वयं को मेरा पिता घोषित कर मुझे अनुगृहीत करें, आर्य? नहीं तो मेरा जीवन, बस समझिये कि गया तेल लेने।''
जामवंत जी उदासी भरे स्वरों में बोले- ''वत्स, यहाँ तो खुद मेरी बपौती ख़तरे में पड़ गयी है। विरोधियों ने मेरे बेटे के होटल में छापा मरवाकर उसमे होने वाला कैबरे बंद करवा दिया है! माननीय राज्य-प्रमुखजी बहुत नाराज़ हैं। वे कह रहे थे कि जब वे इस स्थान का दौरा करेंगे, तो कैबरे कहाँ देखेंगे। अब तुम्ही कहो, वत्स, जिसकी ख़ुद कि लुटिया डूब रही हो, वह तुम्हारा पूजनीय पिता कैसे बन सकता है?''
मैंने पूछा- ''तो आप कुछ तो राह सुझाइए? कहें तो मैं माननीय प्रमुखजी के पास चला जाऊं?''
वे गंभीर होकर बोले- ''नहीं वत्स, वे भी अपना कोई पंगा सुलझाने महाराजधानी की और गए है। तात, इस देश में राष्ट्रपिता नहीं रहे, 'बापू' नाम विलीन हो गया और महात्मा शब्द भी खो गया। पर ''गाँधी'' अभी जिन्दा हैं। सभी इस वल्दियत को ढो रहे हैं। सत्ता-पक्ष वाले चरणामृत लेते हैं और विपक्ष वाले उनका पिंडदान करने पर उतारू हैं। इसलिए, तू भी यहीं कहीं कोई लोकल पिता तलाश ले। ज्यादा ऊँची महत्वाकांक्षा अच्छी नहीं होती, वत्स!''
जामवंत जी की सलाह मानकर अभी मैं लोकल सर्वे कर ही रहा था कि विपक्ष वालों ने मुझे घेरकर धमकाया- ''हमने सुना है कि तुम सत्ता-पक्ष में अपना पिता तलाशते फिर रहे हो? बहुत ही गैरजिम्मेदाराना हरक़त है यह! और क्या हम बेवकूफ़ है जो सत्ता-पक्ष की बपौती ख़त्म करने पर तुले हुए हैं? याद रक्खो, यदि अगले दो दिनों के भीतर तुमने हमें अपना पिता नहीं बनाया, तो हम तुम्हे ऐसा बना देंगे कि तुम पिता रखने लायक ही नहीं रहोगे!''
भय के मारे मैं विपक्ष की शरण में जाने की सोच ही रहा था कि सत्ता-धारी आए और वे भी धमका गए- ''बरखुरदार, हम तुम पर बराबर नज़र बनाये हुए हैं! यदि तुम हमारे विरोधियों के बहकावे में आए, तो हम तुम्हारी नाक में दम कर देंगे!''
तो इस तरह, हे मेरे प्यारे देशवासियो, मैं एक नयी झंझट में फँस गया हूँ। इस देश में तो मुझे वल्दियत की कोई समस्या ही नज़र नहीं आती है। सभी के अपने अपने पिता हैं; अपनी अपनी बपौती है। कोई भी मुझे वल्दियतविहीन नहीं लगता इस देश में। बुरा हो उस साले पागल दोस्त का, जिसने मुझे इस मुसीबत में फंसा दिया।
अभी हल ही में फिर मिल गया था वह पागल दोस्त। मुझे देखते ही चहककर बोला- ''वाह भाई वाह, खोज लिया तूने भारत मां की संतानों का पिता? आखिर नहीं मिला न? हुंह! चला था बाप खोजने! तू अपने को बहुत होशियार समझता है, है न? अरे, मैं तो सालों से एक अदद पिता की आस लगाये बैठा हूँ! जब मुझे अभी तक मेरा पिता नहीं मिला, तो तुझ जैसे पागल को कैसे मिल जायेगा इतनी जल्दी, बोल? अब बोल, असली पागल कौन, तू कि मैं?''
मैंने स्वीकार किया, "असली पागल तो मैं हूँ जो हर बार तुझ जैसे पागल की बातों में आ जाता हूँ!"
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श्रवणकुमार उर्मलिया
19/207 शिवम् खंड
वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012
मोब. 9868549036

Tuesday, November 20, 2012

***चरित्र की चीड़-फाड़***



आज मैं सिर्फ़ चरित्र की बात करूँगा।

जानता हूँ कि आज के ज़माने में चरित्र की बातें करना मुझे शोभा नहीं देता। आज आदमी बड़ा है और उसका चरित्र छोटा। पहले धोती-लंगोटी वाले बड़े चरित्र वाले छोटे क़द-काठी के लोग हुआ करते थे। न जाने कहाँ खो गए वे चरित्र

चरित्र की बात चली है तो क्यों न ख़ुद से ही शुरुआत करूँ। मुझे अपना चरित्र हमेशा संदेहास्पद लगा है। क्योंकि मुझे चारित्रिक प्रमाण-पत्र देने वालों के चरित्र हमेशा संदेहास्पद रहे हैं।

हमें प्राथमिक पाठशाला में ही बता दिया गया था कि चरित्र को ऊपर उठाओ, उसे नीचे मत गिरने दो। शिक्षकों का चरित्र बहुत ऊँचा था। इतना ऊँचा कि वे स्कूल को मिलने वाला दूध और दलिया इस ख्याल से बाज़ार में बेच आते थे, ताकि उनका सेवन कर बच्चों का स्वास्थ्य ख़राब न हो। ऐसे चरित्रवान शिक्षक छात्रों के चरित्र का पतन बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। वे छात्रों के चरित्र की रक्षा के लिए छात्रों की ऐसी धुनाई करते थे कि छात्र तो अधमरे हो जाते थे, पर उनके चरित्र बहुत ऊपर उठ जाते थे। हमारे हेड मास्टर जी ने तो चारित्रिक प्रमाण-पत्र देने के एवज में कुछ सुविधा-शुल्क भी हमारे पिताजी से रखवा लिया था।

अब आप मेरे चरित्र की बुनियाद का अंदाज़ ख़ुद ही लगा लीजिये।

मिडिल स्कूल में आठवीं कक्षा तक आते आते हमारे चरित्र अपने आप ऊपर उठने लगे थे। प्रतिदिन प्रार्थना के बाद कोई न कोई शिक्षक कुछ उपदेश देते और फिर मैडमों से चुहलबाज़ियों में व्यस्त हो जाते। छात्रों के चरित्रों को मौका ही नहीं मिल पाता था कि वे नीचे गिरें।

अर्थशास्त्र और चरित्र में इतना गहरा सम्बन्ध मैंने पहले कभी नहीं देखा था। जो छात्र मास्टरों से ट्यूशन पढ़ते थे, उनका चरित्र हमेशा उत्तम आंका जाता था। ट्यूशन न पढ़ पाने की विवशता ओढ़े छात्र चरित्रहीन होने को बाध्य थे।

प्रधानाध्यापक बहुत ही अनुशासनप्रिय थे। शैतानी करने वाले छात्रों की पिटाई वे अपने कर-कमलों से करते थे। और छात्रों को मारने-पीटने एवं शिक्षकों के साथ पोलिटिक्स खेलने से जो समय बचता, उसे मैडमों के साथ अपने चरित्र का उर्ध्वगमन कराने में बिताते। वे छात्रों के शुभचिंतक थे और परीक्षा के समय उनके घर सब्जी-दूध पहुँचाने वाले छात्रों को उत्तर बता दिया करते थे। जिन छात्रों को उत्तर नहीं बताते थे, वे छात्र बहुत स्वावलंबी हो गए थे। वे अपने चरित्र के सहारे चुटकों के बल पर नक़ल करना सीख गए थे।

चारित्रिक विकास का असली मौक़ा मिला हाईस्कूल में। तब तक हमारा चरित्र भी हमारे साथ वयस्क हो चुका था। प्रिंसिपल साहब का चरित्र इतना ऊँचा था कि वह उनकी पहुँच से भी ऊपर उठ गया था। गर्ल्स स्कूल की मादा प्रिंसिपल के इर्द-गिर्द हमारे प्रिंसिपल का चरित्र संभावनाएं तलाशता रहता था।

लगभग सभी व्याख्याताओं को धनी घरों के बिगडैल लड़कों और छात्राओं से विशेष लगाव था। गुरु-शिष्य परंपरा अपने चरम पर थी। प्रैक्टिकल की कॉपियां जांचने के लिए शिक्षक गुरुदक्षिणा तभी स्वीकार करते थे जब वह उनकी घटिया औकात के हिसाब से हो। आठ-दस शिक्षकों को छोड़कर बाक़ी सोमरस को छूते भी नहीं थे। स्कूल के जो सबसे सीधे-सादे और बुज़ुर्ग शिक्षक थे और जिनकी हम सब बहुत इज्ज़त करते थे; उनके लिए एक दिन स्कूल के प्रांगण में दो जवान महिलाएं आपस में हाथापाई करती हुई पाई गयीं। एकाधिकार का प्रश्न था और दोनों पतिव्रताएं उन बुज़ुर्ग शिक्षक को अपना-अपना पति साबित कर रही थीं।

एक और सीधे-सौम्य शिक्षक एक दिन अचानक भाग गए। उन्होंने भी भागने की परंपरा का निर्वाह किया और साथ में हमारी कक्षा की सबसे सुन्दर छात्रा को भी भगा ले गए। इस घटना पर स्कूल के बाकी शिक्षकों ने बहुत रोष प्रकट किया, क्यों कि उनमे से कई और भी उस होनहार छात्रा के साथ भागना चाहते थे। कुछ दिनों बाद भगोड़े शिक्षक छात्रा के साथ विवाह कर लौट आये। दोनों ने एक दूसरे के साथ मुंह काला किया था, पर छात्रा की मांग में सिन्दूर देखकर सब कुछ उजला हो गया और चरित्र स्थापित हो गया। सभी ने उस विवाह को मान्यता दे दी,  सिवाय उन शिक्षक की प्रथम पत्नी के।

हमारे चरित्र यदि उस माहौल में भी ऊपर न उठते तो यह हमारे लिए शर्म की बात होती। अतः हमने अवसर नहीं गंवाया और ऐसा कुछ किया कि हमारा चरित्र एक (निम्न) स्तर से नीचे गिर ही नहीं सकता था।

कॉलेज पहुंचे तो वहां देखा की चारों ओर चरित्र ही चरित्र बिखरा पड़ा है। कुछ व्याख्याता पांच-पंद्रह का फ़ॉर्मूला इस्तेमाल करते थे ताकि स्टूडेंट्स को पढ़ाने में समय न बर्बाद करना पड़े। कक्षा मे पांच मिनट पहले जाओ, स्टूडेंट्स वहां नहीं होंगे। पंद्रह मिनट बाद जाओ तो स्टूडेंट्स यह सोचकर जा चुके होंगे कि शिक्षक नहीं आएंगे। छात्र और शिक्षक दोनों को यह प्रणाली बहुत माफ़िक आती थी। दोनों वर्ग एक दूसरे से मुंह चुराते थे ताकि शिक्षा के स्तर पर बट्टा न लगे।

एकमात्र मैडम की क्लॉस में छात्रों की उपस्थिति शत-प्रतिशत हुआ करती थी, क्योंकि मैडम जी को पढ़ाने का शऊर नहीं था, जो उनके रूप-लावण्य के आगे क्षम्य था। उनकी कक्षा में बैठकर, उनके सौन्दर्य की विवेचना में हम सभी स्टूडेंट्स के चरित्र को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ।

कॉलेज के स्पोर्ट्स के इंचार्ज प्रतिवर्ष खिलाड़ियों के लिए ख़रीदे जाने वाले किट्स में से कुछ जोड़े खा जाते थे। पुस्तकालय में किताबों को खाने के लिए दीमकों को मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। यह शुभ कार्य पुस्तकालयाध्यक्ष की देख-रेख में पुस्तकालय इंचार्ज के द्वारा संपन्न होता था। एक प्रगतिशील शिक्षक शहर में छेड़खानी करते हुए पिटकर कॉलेज की नाक ऊँची कर चुके थे। उन्हें इस पर भी तसल्ली नहीं हुई तो एक बार वे छात्रों से भी पिटे।

कॉलेज के प्रिंसिपल बड़े सिद्धांतवादी थे। वे ''पूअर ब्यायज़ फण्ड'' का पैसा भी धनवान घरों के छात्रों को ही दिलवाते थे। उन्होंने भैंसें भी पाल रखी थीं जो कॉलेज की शस्य-श्यामला गार्डेन की घास चरा करती थीं। हर हफ़्ते का भैंसों को दुहने के लिए प्रमोशनोन्मुख व्याख्याताओं का ड्यूटी-चार्ट भी हुआ करता था। एक बार प्रिंसिपल साहब की एक भैंस मर गई तो कॉलेज में सभी ने दो मिनट का मौन रखा, भैंस को भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई और सार्वजानिक अवकाश की घोषणा की गई।

प्रिंसिपल साहब के सौजन्य से हम सभी का इतना चारित्रिक विकास हो चुका था कि नौकरी के हर विज्ञापन में हमारे कॉलेज का उल्लेख हुआ करता था। उस उल्लेख को देखकर हम बहुर गौरवान्वित होते थे। हर विज्ञापन में लिखा होता था की फलां(हमारे) अभियांत्रिक महाविद्यालय के विद्वान स्टूडेंट्स आवेदन भेजकर हमें कृतार्थ करने की ज़हमत न उठायें।

चरित्र के नाना आयामों से भयाक्रांत जब इस व्यावहारिक संसार में हमारा गृह-प्रवेश हुआ तो हमारे पास चरित्र के सिवाय कुछ भी नहीं था। जैसे हमारे देश में मध्यमवर्गीय के पास इज्ज़त के सिवाय कुछ भी नहीं होता है। चरित्र का बोझ और मुफ़लिसी। नौकरी की तलाश में दर-ब-दर होते हुए हम। भटकनें ही भटकनें। पहली बार मालूम हुआ की जिनके पास चरित्र होता है वे समाज में बहुत बकलोल समझे जाते हैं। पहली बार ऑस्कर वाइल्ड का कथन समझ में आया...''सधे हुए तौर-तरीके नैतिकताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।''

जब भी अपने चरित्र की टोह लेता हूँ तो बड़ी आत्मग्लानि होती है। मेरा अपना चरित्र तो कभी रहा ही नहीं। चारित्रिक प्रमाण-पत्र की शक्ल में मेरा चरित्र हमेशा चरित्रहीनों का मोह्ताज़ रहा है। नतीजा यह हुआ है कि अपने को चरित्रवान समझने का दम भरने वाला मैं किराये के मकान में रह रहा हूँ, और चरित्र की झंझट न पालने वाले कई-कई किरायेदार पाल रहे हैं।

इधर देश में हर तरह के आरक्षण प्रकाश में आ रहे हैं। सोचता हूँ कि एक आन्दोलन चलाया जाय, जिसमे उन चरित्रवानों की बात की जाय जिन्हें करैक्टर-सर्टिफिकेट देने वाले अव्वल दर्ज़े के करैक्टर-लेस थे।

अंत में अपनी व्यथा-कथा बता दूँ कि इतना गिरने के बावज़ूद मेरे चरित्र ने मुझे एक बार धोखा दे ही दिया। मेरे एक परिचित, जो एक चरित्रवान जवान बेटी का पिता होने की हैसियत रखते थे,  उन्होंने मुझे अपने घर पर निमंत्रित किया। जब मैं उनके साथ उनके घर जा रहा था,  उन्होंने बताया कि उनकी इकलौती पत्नी मुझसे मिलने को विशेष उत्सुक हैं। वे जानना चाहती हैं कि मेरे जैसे निकृष्ट जीव का चरित्र भला कैसा होगा?

चरित्र की छानबीन करने वालों से मुझे हमेशा भय लगता है। मुझे बन्दर और मगर की कहानी याद आ गयी। मैंने कहा, ''अंकल जी ! चरित्र तो मैं जामुन के पेड़ पर ही छोड़ आया ! अब आंटी जी को क्या दिखाऊंगा ?''

वे बोले, ''बरखुरदार, तुमने ठीक ही किया। हमारा घर बहुत छोटा है। उसमे हम मियां-बीबी और बच्ची ही बहुत मुश्किल से रह पाते हैं। चरित्र के लिए इस घर में जगह ही नहीं है।''

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(व्यंग्य-संग्रह 'लक्ष्मीजी मृत्युलोक में' से )

Monday, September 17, 2012


                                    ***जोशी जी जवान हुए***

 

हमारा मोहल्ला इस देश का प्रतिनिधि मोहल्ला है.हमारे मोहल्ले का इतिहास गवाह है कि यहाँ के लोगों ने तरह-तरह से मोहल्ले का नाम रोशन किया है. टंडन जी के घर पड़ने वाला छापा हो या परसाद जी के घर पर होने वाले नास्तिक व बनावटी भजन-कीर्तन,बहू-बेटियों के सात्विक कारनामे हों या सास- बहुओं की कर्कश यश-गाथाएं,पति-पत्नी के बीच के मधुर द्वंदात्मक सम्बन्ध हों या कुत्तों की नस्ल के साथ मनुष्य के नस्ल की समन्वय-किवदंतियां, हमारा मोहल्ला हमेशा कुख्यात रहा है.इन बातों को लेकर हमारा देश हमारे मोहल्ले पर गर्व कर सकता है.

इस बार मोहल्ले को गौरवान्वित किया है स्वनामधन्य जोशी परिवार ने.वैसे तो मोहल्ले की नाक है जोशी परिवार, पर मोहल्ले के कुछ तथाकथित इतिहासकारों का मत है कि जोशी परिवार को नाक से ज़्यादा 'मोहल्ले के कान' और 'मोहल्ले की ज़ुबान' कहना ज़्यादा सार्थक होगा.ऐसा इसलिए,क्योंकि मोहल्ले में सारी लगाई-बुझाई का ज़िम्मा इस परिवार ने ले रखा है.

 जोशी-दम्पति के बारे में लोग तरह-तरह की अटकलें लगाते हैं.दोनों की जोड़ी ज़रा हटकर है.दोनों ''नॉट मेड फॉर ईच अदर'' की मिसाल लगते हैं. '' जबरन एक दूसरे के गले मढ़ देना'' कहावत संभवतः इनकी शादी के बाद ही चलन में आई होगी.इस जोड़ी में वैसे तो हर तरह का विरोधाभास नज़र आता है, पर दोनों में उम्र का फ़ासला स्पष्ट दिखता है.या तो जोशी जी की शादी ज़रा देर से हुई और श्रीमती जोशी जल्दी व्याह दी गईं. नतीजा यह हुआ कि श्रीमती जोशी जवानी की दहलीज़ के भीतर रह गईं और जोशी जी जवानी की बाउंडरी पार कर गए. या हो सकता है कि अपवादस्वरूप यह जोशी जी की तीसरी शादी हो. यह भी हो सकता है कि जोशी जी ने अपने बाल धूप में पकाकर सफ़ेद कर लिए हों.

बहरहाल 'आदर्श जोड़ी' की परिभाषा को जोशी-दम्पति पर ख़र्च नहीं किया जा सकता है.ऐसी ही जोड़ियों के लिए हमारे सभ्य समाज में ''अंधे के हाथ बटेर'', ''हूर के गले में लंगूर'' या ''भगवान् बनाई जोड़ी, इक लंगड़ा इक कोढ़ी'' जैसी शाश्वत कहावतें प्रचलित हैं.

पति बूढ़ा दिखे और पत्नी जवान,तो मोहल्ले की खोजी निगाहें उन्हें ताड़ने लगती हैं. उन निगाहों से बचने के लिए जोशी-दम्पति लोगों के सामने आपसी प्यार का प्रदर्शन करते हैं, पर लोग भ्रमित नहीं होते. वे अपना पहरा और कड़ा कर देते हैं. लोग अनुभवी हैं और समझते हैं कि बेमेल जोड़ों में समझौते का बहुत बड़ा योगदान हुआ करता है. यदा-कदा लोगों की गिद्ध-दृष्टियों को श्रीमती जोशी आश्वस्त करती रहती हैं, ''वो क्या है न कि जोशी जी बदल-बदल कर तेल लगाया करते थे न, इसीलिए इनके बाल जल्दी सफ़ेद हो गए.''  जब उनकी सहेलियों की तसल्ली नहीं होती तो श्रीमती जोशी अपना बयान बदल देती हैं,''बहन, इनके परिवार में ही कुछ ऐसा है कि मर्दों के बाल जल्दी सफ़ेद हो जाते हैं. इनकी वंश-परंपरा ही कुछ ऐसी है!''

 श्रीमती जोशी का यह तर्क ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि हमारे परिवार में मर्दों की मूंछें होती हैं और औरतों की मूछें नहीं होती हैं. हमारी वंश परंपरा ही कुछ ऐसी है!

श्रीमती जोशी अपने पति के सफ़ेद बालों को अपने घटिया तर्कों से ढंकने की भरसक कोशिश करती रहती हैं, पर कोई न कोई बात ऐसी हो ही जाती है जो उन्हें परेशान कर देती है. एक दिन वे अपने पति के साथ बाज़ार जा रही थीं कि उनकी एक नई सहेली ने देख लिया. उस सहेली ने उनके पति जोशी जी को नहीं देखा था. उस सहेली ने श्रीमती जोशी से पूछ लिया,''सुशीला,तुम्हारे पिताजी आये हुए हैं क्या?''

 ''नहीं तो...'', श्रीमती जोशी ने स्पष्टीकरण दिया. पर सहेली ने ज़ोर दे कर कहा, ''हाँ ,मैंने तो देखा कि तुम उनके साथ मार्केट की तरफ जा रही थी!''

झेंप मिटाते हुए श्रीमती जोशी बोलीं, ''अरे वे? वे तो मेरे पति हैं...ऐसा है न डीयर कि उनके बाल ज़रा जल्दी सफ़ेद हो गए हैं...!''  मन ही मन वे अपने पति पर बड़बड़ाईं...' कई बार कहा इस घोंचू को कि खुद को थोडा मेंटेन करे,पर नासपीटा सुनता ही नहीं...! बुड्ढा कहीं का...!'

अभी अपनी सहेली के आघात से श्रीमती जोशी सम्हल भी नहीं पाई थीं कि किसी और ने पूछ लिया, ''मिसेज जोशी, आपके बड़े भाई आये हुए हैं क्या? मैंने तुम दोनों को साथ-साथ देखा...तुम्हारे तो चेहरे भी मिलते हैं...!'' श्रीमती जोशी मन ही मन कुढ़ते हुए बोलीं, ''नहीं मिसेज वर्मा, वे मेरे पति हैं.''  मिसेज वर्मा ने उन्हें धराशायी करते हुए कहा, ''अरे,नहीं...! ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो बड़े बुजुर्ग से दिखते हैं?लगता है आपने खुद को इतनी अच्छी तरह से मेंटेन किया है कि आप उनके सामने बहुत यंग नज़र आती हैं...!''

श्रीमती जोशी ने फिर वही रटा रटाया तर्क देकर मिसेज वर्मा से जान छुड़ाई और मन ही मन उन्होंने अपने पति को फिर कोसा...'यह घटिया पति मेरी इज्ज़त को मिट्टी में मिलाकर ही रहेगा...!'

श्रीमती जोशी समस्या से निबटने के बारे में सोच ही रही थीं कि उनकी मुहफट सहेली ने पूछ लिया, ''क्यों री! तूने बताया नहीं कि तेरे ससुर आये हुए हैं...कल देर शाम देखा मैंने...तेरे घर से निकल रहे थे?'' श्रीमती जोशी बोलीं, ''यार,क्यों मज़ाक कर रही है? तूने उन्हें पहचाना नहीं क्या? अरे वे मिस्टर जोशी रहे होंगे...!''

सहेली बोली, ''अच्छा, पर वे तो बहुत बूढ़े दिखने लगे, यार!'' श्रीमती जोशी ने शरारत से कहा, ''बाल ही तो सफ़ेद हुए हैं उनके.दिल से तो वे जवान हैं!'' सहेली ने उन्हें ज़मीन पर ला पटका, ''दिल की जवानी को तो यार, तू ही जाने, पर ज़रा बाहर से उनकी मरम्मत करवा दे. तू उनके साथ ऐसी लगेगी जैसे दो अलग-अलग पीढियां साथ-साथ चल रही हों!''

श्रीमती जोशी ने मन ही मन सोचा...'इस खूसट पति का कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा, वर्ना यह मुझे भी भरी जवानी में बूढ़ा कर देगा...!' उन्हें लगने लगा कि मोहल्ले की हर आंख उन्हें घूर रही है. जैसे उनसे कहना चाहती हों कि उनका पति बूढ़ा है.श्रीमती जोशी ने बहुत सोच विचार किया, अपनी किटी-पार्टी की सहेलियों से विचार विमर्श किया और जोशी जी की नश्वर काया पर जवानी लाने के प्रोजेक्ट पर जुट गईं.

 श्रीमती जोशी ने अपने पति को डांट कर कहा, ''तुम्हारे इन पके बालों ने मेरी नाक काटकर रख दी है.कितनी बार कहा कि इन्हें काले कर लो, पर तुम मेरी सुनते कहाँ हो! कल ही जा कर किसी सैलून में अपने बाल काले करवाओ, समझे? अब बहुत हो गया!''

पति जोशी जी विनम्रतापूर्वक बोले, ''अब इस उम्र में तुम मुझ पर रंग-रोगन करवाओगी? ठीक से सोच लो, भाग्यवान! कहीं ऐसा न हो कि मेरे काले बाल तुम्हारी ज़्यादा नाक कटवाएं?''

 पत्नी-हठ ने जोशी जी के बाल काले करवा दिए. उनकी मूछें भी काली करवा दी गईं. लगे हाथ जोशी जी ने फेसियल भी करवा लिया.जोशी जी ने ख़ुद को आईने में देखा तो अपनी कायाकल्प देखकर बेहोश होते होते बचे. पूरे मोहल्ले में बात फ़ैल गयी कि जोशी जी जवान हो गए हैं. लगा जैसे पूरा मोहल्ला ही जवान हो गया हो.अब पति-पत्नी बड़ी शान से साथ-साथ घूमते. श्रीमती जोशी पति-प्रदर्शन के चक्कर में कुछ ज़्यादा ही घूमने पर ज़ोर देतीं.

 श्रीमती जोशी को मनचाहे कम्पलीमेंट मिलने लगे. कोई सहेली कहती, ''यार, तेरा पति तो बड़ा क्यूट लगने लगा है. ऐसा लग रहा है जैसे खँडहर में से २५ वर्षीय ईमारत निकल आई हो.''

मिसेज वर्मा ने कहा, ''आप तो छा गईं, मिसेज जोशी.आप ने तो अपने पति का कायाकल्प कर के उन्हें बूढ़े बैल से गबरू सांड़ बना दिया!''

मुंहलगी सहेली बोली, ''तूने तो अपने ऊबड़-खाबड़ पति को एकदम छैल-छबीला रोमांटिक हीरो बना दिया! बड़ा ही यंग दिखने लगा है तेरा पति, यार!''

श्रीमती जोशी को अपने ऊपर गर्व हो आया. आईने में ख़ुद को निहारते हुए उन्होंने मन ही मन सोचा...'एस! आय हैव डन इट!'

अब श्रीमती जोशी की सहेलियां उनसे ज़्यादा क़रीब रहने लगीं. रास्ते में मिल जातीं तो बड़ी देर तक तक उनसे बातें करती रहतीं. जोशी जी अकेले में मिल जाते तो श्रीमती जोशी की सहेलियां उनसे लम्बी गुफ़्तगू करतीं. जब-तब उनकी सहेलियां उनके घर आ धमकतीं और जोशी जी से चिपकने लगतीं. जोशी जी में आकर्षण पैदा हो गया था क्योंकि वे जवान जो हो गए थे.

श्रीमती जोशी के शुभचिंतकों ने उन्हें आगाह भी किया, ''डीयर, ज़रा जोशी जी पर निगाह रख.वे तेरे हाथ से निकलते जा रहे हैं. तेरी सहेलियां और अन्य महिलाएं उन्हें ज़्यादा तवज़्ज़ो दे रही हैं.''

श्रीमती जोशी ने शुभचिंतकों की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया. वे अपने पति की जवानी को भुना रही थीं. मोहल्ले में उनकी नाक ऊँची हो चुकी थी. उन्होंने अपने आलोचकों को करारा जवाब दे दिया था. पति की असमय जवानी ने उन्हें फिर से मोहल्ले में स्थापित कर दिया था.

सभी कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, पर मोहल्ले के एकमात्र पीपल के पेड़ पर जो भूत रहता था, वह बेचैन था. उसकी वक्र-दृष्टि जोशी दम्पति पर पड़ रही थी. वह जोशी दम्पति से बहुत ख़फ़ा था.एकबार जब वह जबरन जोशी जी के घर में घुस गया था तो जोशी जी ने एक तांत्रिक को बुलाकर उसे वापस पीपल पर लटकवा दिया था. तभी से वह भूत बदले की फ़िराक में था.

जोशी जी को जवान देखकर भूत ने ठहाका लगाया...और अगले ही दिन किसी ने श्रीमती जोशी से पूछ लिया, ''आजकल आपका छोटा भाई आया हुआ है क्या? कल हमने देखा कि वह आपके साथ जा रहा था.''

श्रीमती जोशी इस बार भीतर से ख़ुश होते हुए शरमाते हुए बोलीं, ''अरे वे? वे तो मेरे 'वो' हैं. ऐसा है न बहन कि वे अपने रख-रखाव पर ज़रा ज्यादा ध्यान देते हैं.''

 पहली बार उनकी आत्मा ने उन्हें लताड़ा, ''यह क्या हो रहा है, पगली? अरे करमजली,पति को जवान बनाने के चक्कर में तूने यह क्या कर डाला? लोगों को जोशी जी तेरे भाई दिख रहे हैं...तेरी सहेलियां उनके हाथों में तुझसे राखी बंधवा देंगी!''

श्रीमती जोशी अभी सम्हल भी नहीं पाई थीं कि एक और कानलगी सहेली पूछ बैठी, ''आजकल तेरा देवर आया हुआ है क्या? कल बड़ा सटकर चल रही थी उससे? यार, तेरे तो मज़े हैं!''

श्रीमती जोशी ने बात को सम्हाला, ''नहीं री, वे तो मेरे पति थे. तू तो जानती ही है कि वे अपने को कितना मेंटेन कर के रखते हैं! इसीलिए यंग दिखते हैं!''

उधर पीपल के भूत ने ठहाका लगाया, इधर श्रीमती जोशी की आत्मा ने उन्हें फिर धिक्कारा... 'अपने पैरों पर तू ने मार ली न कुल्हाड़ी? तुझे इतनी भी अकल नहीं कि पति बूढ़ा ही ठीक होता है, पगली!'

श्रीमती जोशी फिर चिंता में डूब गयीं. उन्होंने स्थितियों का जायज़ा लिया तो पाया कि पति उनके हाथों से निकलते जा रहे हैं.अब उनकी सहेलियां जोशी जी के लिए खाद्द्य सामग्री और पकवान भी भिजवाने लगी हैं. उन्होंने चिंतन-मनन किया और सहेलियों की सलाह भी ली.उनकी आत्मा ने भी निर्णय दिया कि चूँकि पति घरमालिक होता है, इसलिए उसका पत्नी से ज़्यादा बूढ़ा होना शास्त्रसम्मत है.

श्रीमती जोशी ने जोशी जी को आदेश दिया, ''तुम्हे बूढ़ा होना होगा, पति देव! तुम्हारे बालों को काला करवाने का खर्च बढ़ने लगा है. घर का महीने का बजट बिगड़ने लगा है. आगे से अब तुम अपने बाल काले नहीं करवाओगे, समझे?''

जोशी जी अभी अभी जवान हुए थे. बाल काले करवाने में चालीस रुपये महीने का खर्च था, पर फ़ायदे बहुत थे. वे हमेशा ललनाओं से घिरे रहते थे. पत्नी भी ज़्यादा डांटती नहीं थी. उन्हें अपनी जवानी में बहुत आनंद आने लगा था.

जोशी जी ने इनकार करते हुए कहा, ''नहीं प्रिये, अब मैं बूढ़ा नहीं होना चाहूँगा. भाग्यवान, मुझे तेरा भाई या देवर होना मंज़ूर है, पर तेरा बाप या ससुर होना मंज़ूर नहीं है!''

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***श्रवण कुमार उर्मलिया***